आजीवन कारावास

निश्चित अवधि के कारावास को आजीवन कारावास से अलग करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को कहा कि संवैधानिक अदालतें किसी अपराधी की आजीवन कारावास की सजा को तबतक निलंबित नहीं करेंगी, जबतक कि प्रथम दृष्टया यह संतुष्ट न हो जाए कि ट्रायल कोर्ट के फैसले में कोई गलती है।

नई दिल्ली : ट्रायल कोर्ट से उम्रकैद के मामलों में ऊपरी अदालतों में अपील के दौरान सजा के सस्पेंशन पर सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फैसला सुनाया है। शीर्ष अदालत ने साफ किया है कि आजीवन कारावास की सजा तभी निलंबित की जानी चाहिए जब पहली नजर में साफ-साफ दिखे कि ट्रायल कोर्ट से गलती हुई है। हमारे सहयोगी टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक, सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि संवैधानिक अदालतें आजीवन कारावास से जुड़े मामलों में सजा को तबतक सस्पेंड न करें, जबतक कि वह संतुष्ट न हो जाएं कि अपील के दौरान ट्रायल कोर्ट का फैसला टिकने वाला नहीं है। शीर्ष अदालत ने कहा कि निश्चित अवधि के कारावास और आजीवन कारावास को अलग-अलग करके देखने की जरूरत है।मर्डर के एक मामले में आजीवन कारावास की सजा के निलंबन की याचिका पर सुनवाई करते हुए जस्टिस जे. बी. पारदीवाला और जस्टिस उज्जल भुयान की वकेशन बेंच ने कहा, ‘निश्चित अवधि की सजा और आजीवन कारावास के बीच सूक्ष्म अंतर है।’ बेंच ने कहा, ‘अगर दी गई सजा निश्चित वर्षों के लिए है, तो अपीलीय अदालतें दोषी की अपील पर फैसला होने तक सजा को निलंबित करने के लिए अपने विवेक का उदारतापूर्वक इस्तेमाल कर सकती हैं जबतक कि अभियोजन पक्ष अदालत को इसे निलंबित करने से रोकने के लिए असाधारण परिस्थितियों का हवाला न दे।’

न्याय का सामान्य सिद्धांत है कि जबतक दोषी न ठहराया जाए, आरोपी निर्दोष माना जाएगा। लेकिन ट्रायल कोर्ट से दोषी ठहराए जाने के साथ ही स्थिति बदल जाती है। तब दोषी तबतक दोषी माना जाता है जबतक कि अपीलीय अदालत से निर्दोष न साबित हो जाए। न्याय के इस सामान्य सिद्धांत का जिक्र करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ‘ ‘जब मामला आजीवन कारावास का हो, तो अपीलीय अदालत द्वारा लागू किया जाने वाला एकमात्र परीक्षण यह है कि क्या रिकॉर्ड के आधार पर ऐसा कुछ एकदम साफ-साफ है जिसके आधार पर अपीलीय अदालत प्रथम दृष्टया यह राय बना सके कि दोषसिद्धि कायम रखने योग्य नहीं है या दोषी के पास अपनी अपील में सफल होने का अच्छा मौका है।’

हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ऐसे मामलों में अपीलीय अदालत को साक्ष्यों का दोबारा मूल्यांकन नहीं करना चाहिए। गुजरात के एक मामले में कोर्ट ने ये टिप्पणियां दर्ज कीं। जस्टिस पारदीवाला और भुयान ने कहा कि चूंकि हाई कोर्ट ने प्रथम दृष्टया पाया है कि ट्रायल कोर्ट ने साक्ष्यों का सही मूल्यांकन किया है, इसलिए सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप की गुंजाइश नहीं है।

उम्रकैद की सजा के खिलाफ अपील करने वाले शख्स के वकील रऊफ रहीम ने दलील दी कि उनके मुवक्किल का कोई पूर्व आपराधिक इतिहास नहीं था और उसकी सजा को निलंबित करने की जरूरत है क्योंकि उसे अपनी विधवा बहू की देखभाल करनी है जिसके तीन नाबालिग बच्चे हैं। उन्होंने अदालत को यह भी बताया कि चूंकि सजा के खिलाफ अपील पिछले साल हाई कोर्ट में दायर की गई थी, इसलिए निकट भविष्य में इस पर फैसला होने की बहुत कम संभावना है।

इस पर मानवीय दृष्टिकोण अपनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सजा को निलंबित करने की दोषी की याचिका पर गुजरात सरकार को नोटिस जारी किया और मामले की सुनवाई चार सप्ताह बाद तय की।

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